खूब बखान मचालो आज तो,
एक गरीब की व्यथा रैंन का।
म्रन्नरण अव्यय से हो गये हो,
नाम नही है कहिं चैंन का,
मुझको लेलो संसार के मझारन से,
यही अरज करते हो जम से।
हे इन्द्र उठा लो मुझे यहां से,
अपने निर्दय कुलिश के दम से।
मेरे नग्गेपन पर हंसती है,
दुनिया भर-भर कर हुंकार ,
ये गरीबी चलाती है जब,
अपनी बरछी और करवाल ।
ये गरीबी अराती बन बरसती,
जेंसे बरस रहा हो कालकूट,
मेरी सांसे मौत को तरसतीं,
जैंसे अनागत के लिये भूत।