Friday, October 8, 2010

मुझे फिर से प्रशन दो,नये युग नये दौर के।


मुझे फिर से प्रशन दो,नये युग नये दौर के।
में उल्झी हुई ज़िन्दगी जीने की आदी हो गयी हूँ,
अब नही सुलझे हुए जीवन की मुझको कामना,
तो बदल दो फिर प्रशन मेरे उलझा के उनको गौर से,
मुझे फिर से प्रशन दो,नये युग नये दौर के।
मुझको नही भाता सुबह बेफिक्र होकर जागना,
उलझनो को छोडकर खुशयों के पीछे भागना।
मुझको उलझाए रखो चुनौतियों में चारों ओर से,
मुझे फिर से प्रशन दो,नये युग नये दौर के।
जब सुख की चाह थी,तब ना मुझे खुशियों मिलीं,
चुनौतियाँ इस् कदर बढीं,फिर वही मेरी आदत बनी।
अब ना मुझे देना सुकून,मर ना जाऊ उनके जोर से,
मुझे फिर से प्रशन दो,नये युग नये दौर के।
मेरी आय के श्रोत तुम फिर से बन्द कर दो,
मेरे शत्रुओं को फिर उन्माद से भर दो।
रातों की नींद उड जाए मेरी,लेनदारों के शोर से
मुझे फिर से प्रशन दो,नये युग नये दौर के।

अब ना रोको मशाल को,अब दिये बुझ जाने दो


अब ना रोको मशाल को,अब दिये बुझ जाने दो।
अब जो घर जलना ही है,तो अभियोग क्यूँ दियों को हो,
सहिष्णुता का बान्ध अब टूटने की कगार पर है,
सौ दियों की लौ का जिम्मा अब एक मशाल पर है,
अब नही यह रहने योग्य,हुंक्र्ति दिवारो से निकले यहॉ ।
अपनो के ही रक्त्त की प्यास,प्यासे रिश्तों को है जहॉ ,
ना जो अब ये आशियाना जलाया गया तो जान लो।
रक्त्त बहेगा फिर इस तरह, ना फिर रुकेगा ये मान लो,
बरछीयों से ना तलवार से, ना माँ काली के भाल से।
परलय से भी ना सुन्य होगा,पाप आज उस काल में है,
सौ दियो की लो का जिम्मा अब एक मशाल पर है।
एक मशाल जो क्रन्ति की सबके दिलों मे जल उठी है,
बस वही काल बन पाप का,महाप्रलय मे जुटी है॥

क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।


क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
निरापद नहीं कोई दिशा,प्राकाष्ठा ना बांधो कोई,
उछाह में भी है विषाद,छ्दम मुख ना साधो कोई।
वो अम्रित नही गंगाजल नही,विश है उसको बहने दो,
क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
वो हाथ जो रक्त्त में सने,परमार्थ कैंसे लिख रहे?
दिग्भ्रमित कर पीडियो की,भवनो को भग्नावाशिष्ट कर रहे।
आग्रह नहीं वह स्वांग है,ना सुनो उसे बस कहने दो,
क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
हर दिये की लौ पर यहां आशियाना एक जला,
अनुकम्पा ना कोई जगी,और धष्ट मन प्रसन्न हुआ।
मर्म्भेदी घाव अहेतुक नहीं,ये खुद के बोए बीज हैं ,
यूथ्भ्रष्ट को कोइ सुख नही,जान कर भी करील को,
ना मशाल से ना जलाया कभी,तो ये घाव स्वंय मेरे ही हैं,
मुझको ही इन्हे सहने दो।
क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।