Tuesday, October 12, 2010

निस्ठुर पुत्र


                              
आज मेरी रुह लज्जा से जर जर हुई ,
नीरव है वो बस अश्क है बहा रही।
घर से एक माँ आज है बेघर हुई,
अपने ही पुत्रों कि वो यातनाएँ झेल रही।
कल तक थी जो सागर वितत आज है पोखर हु,
मुकुलित जिस पुष्प को प्यार माँ ने था दिया,
आज खिलकर पुष्प ने उसको ही है छ्ला,
दावानल भी ना भस्म कर सके जिसको।
आज देह पुत्र की इस कदर पत्थर हुई,
थी जो कभी अमूल्य मुकुताफ़ल माँ उसके लिये,
आज वो घर की देवी, मरकत से है कंकर हुई,
इतना स्वार्थ, इतना उम्माद?किसको तू छ्ल रहा?
भोर जो सुन्दर है तेरी तभी तू ये भूल रहा,
हर सुबह की रैन है,आने मे उसे कब देर हुई?

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