Friday, October 8, 2010

क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।


क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
निरापद नहीं कोई दिशा,प्राकाष्ठा ना बांधो कोई,
उछाह में भी है विषाद,छ्दम मुख ना साधो कोई।
वो अम्रित नही गंगाजल नही,विश है उसको बहने दो,
क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
वो हाथ जो रक्त्त में सने,परमार्थ कैंसे लिख रहे?
दिग्भ्रमित कर पीडियो की,भवनो को भग्नावाशिष्ट कर रहे।
आग्रह नहीं वह स्वांग है,ना सुनो उसे बस कहने दो,
क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
हर दिये की लौ पर यहां आशियाना एक जला,
अनुकम्पा ना कोई जगी,और धष्ट मन प्रसन्न हुआ।
मर्म्भेदी घाव अहेतुक नहीं,ये खुद के बोए बीज हैं ,
यूथ्भ्रष्ट को कोइ सुख नही,जान कर भी करील को,
ना मशाल से ना जलाया कभी,तो ये घाव स्वंय मेरे ही हैं,
मुझको ही इन्हे सहने दो।
क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।

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